Book Review : अपनी बहन की पुस्तकों के बांग्ला से अंग्रेजी अनुवाद को लेकर क्यों अप्रसन्न थे रवींद्रनाथ टैगोर?

👇खबर सुनने के लिए प्ले बटन दबाएं

यह दुखद है कि राष्ट्रवादी इतिहास और स्त्रीवादी आन्दोलनों में स्वर्णकुमारी देवी का नाम बहुत उपेक्षित स्थिति में रहा. अगर कहीं उनकी चर्चा हुई भी, तो उसे भी उनकी ख़ुद की बेटी सरला देवी के कृतित्व के बाद में रखा गया, जबकि ईमानदारी से देखा जाए तो उस चुनौतीपूर्ण समय में उनके लिखे गए उपन्यास और कहानियां उनके प्रगतिशील कथानकों के कारण पश्चिमी देशों में लोकप्रिय हुए. स्वर्णकुमारी देशभक्ति और स्वतंत्रता के आन्दोलनों की पक्षधर थीं, पर अहिंसक रूप से साहित्यिक और वैज्ञानिक लेखन के अलावा उनका लगाव समाज सेवा से भी था. एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग, विशेषतः निर्धन और विधवा महिलाओं की शिक्षा तथा आर्थिक और सामाजिक दशा के उन्नयन के लिए उन्होंने जो भरसक प्रयास किए वह बंगाल के उस उपेक्षित वर्ग के लिए अविस्मरणीय था. उनका योगदान आज भी इतिहास में दर्ज है.

आपको बता दें, कि स्वर्णकुमारी के व्यस्त जीवन की अंतिम घड़ी अचानक ही अप्रत्याशित रूप से आई थी. हुआ यह था कि बंगाली साहित्य के प्रशंसकों द्वारा “साहित्य सेवक समिति” के तत्वावधान में उनके 77वें जन्मदिन पर एक विशाल आयोजन किया था, लेकिन वह आयोजन कभी हो ही नहीं पाया. स्वर्णकुमारी को इनफ्लुएंजा का असर हुआ, वह पांच दिनों तक लगातार बीमार रहने के बाद अपने चिकित्सक के परामर्श के विपरीत और अपने निकटस्थ लोगों के मना करने पर भी फिर से ऊर्जित होने के प्रयास करने लगीं, लेकिन इस कोशिश के चलते पहले उनकी बोलने की शक्ति खोई, फिर स्वंय पर भी उनका नियंत्रण नहीं रहा और 3 जुलाई 1932 को 76 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली. उस समय उनके छोटे भाई रवींद्रनाथ टैगोर शांतिनिकेतन में थे.

साहित्य की साम्राज्ञी स्वर्णकुमारी बंगाल की अपने समय की सबसे विलक्षण महिला थीं, जिन्होंने वहां की स्त्री जाति के उत्थान के लिए बहुत काम किया. यह दुखद था कि जब बंगाल उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करने के लिए तैयार हो रहा था, उसी दिन वह उस सुख से वंचित रह गईं. यह मापना मुश्किल है कि उनके जाने से बंगाली साहित्य, समाज और विशेष रूप से महिलाओं के उत्थान के प्रयासों का कितना नुकसान हुआ. अपने लेखन और अन्य गतिविधियों के माध्यम से वह जब तक इस दुनिया में रहीं महिलाओं को और अधिक मजबूत और समझदार बनाने की लगातार कोशिश करती रहीं. वह नए रास्ते बनाने के लिए जानी जाती थीं, और उन रास्तों पर महिलाओं को आगे बढ़ाने की प्रेरणा स्रोत थीं. उन्होंने महिलाओं के ऊपर 50 वर्षों पूर्व लगाए गए प्रतिबंधों के विरुद्ध संघर्ष करने का बीड़ा उठाया था, जिसका फायदा आने वाली पीढ़ियों को मिला और आज तक मिल रहा है. आज के बंगाली समाज में जो मुक्त व्यवस्था महिलाओं को मिल पाई, वह स्वर्णकुमारी के ही प्रयासों का फल है.

गौरतलब है, कि स्वर्णकुमारी सुप्रसिद्ध कवि-लेखक रवींद्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं और मात्र 12 वर्ष की अल्प आयु में ही उनका विवाह सम्पन्न हो गया था, ऐसे में समझा जा सकता है कि उन्होंने सामाजिक मुख्यधारा में अपना स्थान किन चुनौतियों का सामना करते हुए बनाया होगा. जब उन्होंने टैगोर परिवार की पत्रिका ‘भारती’ का संपादन कार्य अपने हाथ में लिया तो वह भारत की पहली महिला संपादक तथा पत्रकार के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में सफल हुईं. वह पहले बांग्ला और फिर अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य की विभिन्न विधाओं और वैज्ञानिक लेखन को समृद्ध करने वाली उस काल की पहली महिला थीं, जो अपने जीवन के बड़े भाग में औपनिवेशिक काल की चर्चित समाज सुधारक के रूप में भी जानी गईं. वह बंगाल की पहली उपन्यासकार भी थीं, जिन्होंने कहानियां, नाटक, निबंध, व्यंग्य और यात्रा वृत्तान्त भी लिखे.

जन्म-जन्मान्तर से चली आ रही यौन उच्चता की भावना ने स्वर्णकुमारी का कम नुकसान नहीं किया. एक बेहतर, प्रगतिशील, शिक्षित तथा समृद्ध परिवार में लेखन का अनुकूल वातावरण मिलने के बावजूद स्वर्णकुमारी की साहित्यिक उपलब्धियों को पितृसत्तात्मक समाज ने उनके घर में ही प्रोत्साहन नहीं दिया, या कहें कि अनदेखा कर दिया. यह सचमुच हैरान करने वाली बात है कि अच्छे परिवार, वैचारिक और आर्थिक समृद्धता, अपने राष्ट्रवादी विचारों और उदार दृष्टि की स्वर्णकुमारी देवी को अपने ही परिवार से वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला, जिससे वे लेखन के क्षेत्र में और अधिक महत्त्वपूर्ण जगह बना पातीं. यहां तक कि उनके भाई रवींद्रनाथ टैगोर ने भी उनकी किताबों के बांग्ला से अंग्रेज़ी में अनुवाद किए जाने के विषय में अप्रसन्नता व्यक्त की थी. परन्तु स्वर्णकुमारी ने अपने स्वभाव के अनुरूप इसे कोई मुद्दा नहीं बनाया बल्कि अपनी साहित्यिक और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के प्रति लगातार समर्पित रहीं.

पेंगुइन स्वदेश द्वारा प्रकाशित राजगोपाल सिंह वर्मा की पुस्तक ‘स्वर्णा’ स्वर्णकुमारी देवी के जीवनपर्यंत साहित्यिक और सामाजिक प्रतिबद्धताओं को ही समर्पित है. यह पुस्तक एक विलक्षण महिला के कार्यकलापों को जानने, चुनौतीपूर्ण समय में उनके रचनात्मक योगदानों को रेखांकित कर, भारतीय समाज में, विशेषकर महिलाओं के उत्थान की गतिविधियों को सामने लाने का एक प्रयास है. लेखक का स्त्रियों की रचनात्मक विरासत को अपनी पैनी दृष्टि से पहचानकर पाठकों को एक विदुषी महिला से परिचित करवाने का प्रयास यकीनन सराहनीय है.

राजगोपाल सिंह की पुस्तक ‘स्वर्णा’ शोधपरक जीवनी के रूप में लिखी गई है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह पुस्तक और ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है, इसमें ऐसा बहुत कुछ है, जिसके बारे में न तो आपने अब तक कहीं सुना होगा और न ही गहराई से जानने की कोशिश भी की होगी. पुस्तक की पठनीयता और धारा प्रवाहता से सहज स्वर्णकुमारी देवी के जीवन का परिदृश्य सामने उभरकर आ जाता है. गौरतलब है राजगोपाल सिंह वर्मा का जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) में हुई है और उन्होंने पत्रकारिता तथा इतिहास में स्नातकोत्तर हैं. उन्होंने उपन्यास, जीवनी, कहानी, और ऐतिहासिक विधाओं में लेखन कार्य किया है.

राजगोपाल सिंह ने ‘स्वर्णा’ का लेखन गहरी शोध के साथ किया है. पुस्तक में उन्होंने कई ज़रूरी और दिलचस्प घटनाओं का ज़िक्र किया है. लेखक के अनुसार, स्वर्णकुमारी ब्रिटिश सरकार के दमनात्मक कार्यकलापों का विरोध करती थीं, पर किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध थीं. स्वर्णकुमारी जन जागृति और तार्किकता में विश्वास रखती थीं. उन्होंने आरम्भिक रूप से ब्रह्मोसमाज, फिर ‘सखी समिति’ तथा महिला शिल्प कला और मेलों के आयोजन से बंगाल की उन महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए जो उस काल में घर की चारदीवारियों को लांघने के विषय में सोच भी नहीं सकती थीं. स्वर्णकुमारी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय दल की सदस्या बनने का गौरव मिला था. इतिहास में दर्ज है कि स्वर्णाकुमारी घोषाल और डॉ कादंबिनी गंगोपाध्याय को 1889 में बम्बई में आयोजित होने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सम्मेलन में डेलीगेट चुना गया था. स्वर्णकुमारी ने कई राष्ट्रवादी गीतों का भी सृजन किया था, जिन्होंने तत्कालीन बंगाली समाज को बहुत प्रेरणा दी.

‘बड़ा प्रश्न यह उठता है कि ऐसा कैसे हुआ कि एक बड़ी महिलावादी और राजनीतिक व्यक्तित्व वाली स्त्री स्वर्णाकुमारी का योगदान समय के साथ प्रासंगिक नहीं रह सका? उनके काम का लोप क्यों हुआ, जबकि उनके भाइयों के कामों को उनके अवसान के बाद भी प्रशंसित और अनूदित किया जाता रहा है? क्या साहित्य एक दुधारी तलवार है, जो महिला और अल्पसंख्यक वर्ग के लेखकों के ऊपर हावी रहा करती है?’ यह पुस्तक इन्हीं सारे सवालों का जवाब देते हुए एक विलक्षण महिला के कार्यकलापों को जानने, उन्हें श्रद्धांजलि देने, चुनौतीपूर्ण समय में उनके रचनात्मक, सामाजिक और राजनीतिक योगदान को रेखांकित कर भारतीय समाज, विशेषकर महिलाओं के उत्थान की गतिविधियों को सामने लाने का एक छोटा-सा प्रयास है यह पुस्तक.

पुस्तक : स्वर्णा (नॉन-फिक्शन)
लेखक : राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक : हिंद पॉकेट बुक्स (पेंगुइन रैंडम हाउस)
मूल्य : 299 रुपए

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi Writer, Rabindranath Tagore, West bengal

Source link

Leave a Comment

  • 7k Network
  • Traffic Tail
  • UPSE Coaching
What does "money" mean to you?
  • Add your answer