Bal Kavita : बच्चों की लोरी तो बहुत पढ़ी और सुनी होगी आपने, अब पढ़ें ‘मजदूरन की लोरी’

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‘क्यों तुम सा हो जाऊं मैं’ बाल काव्य-संग्रह है, जिसे प्रलेक बाल साहित्य द्वारा प्रकाशित किया गया है. इस काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए पता चलता है कि कवि बाल कविताओं के सृजन के प्रति पूरी जिम्मेदारी के साथ समर्पित हैं. संग्रह की अधिकांश कविताएं, वस्तु और अभिव्यक्ति दोनों ही स्तरों पर अच्छी कविताओं की श्रेणी में रखी जा सकती हैं. आलोक के इस संग्रह की कविताओं में बच्चों और बड़ों, सबको अपनत्व देने का सामर्थ्य है.

इस संग्रह की सबसे खूबसूरत बात ये है, कि संग्रह में बाल मन की उपस्थिति निरंतर बनी रहती है. कविताओं में बालक प्राय: कर्त्ता के रूप में है. सभी कविताओं में अनुभवों या विषयों का और शिल्पगत वैविध्य है. संग्रह की कई कविताएं आत्मीय संबंधों को बखूबी सामने लाती हैं. आलोक की सभी कविताओं में जगह-जगह पर प्रभावशाली नई कल्पनाशीलता का वैभव देखते बनता है.

प्रस्तुत है आलोक के इसी संग्रह से एक मार्मिक कविता मार्मिक कविता, ‘मजदूरन की लोरी’. कविता को पढ़ते हुए यह महसूस होता है, कि यह कविता उस ख़ास तबके के बच्चे को ध्यान में रखकर लिखी गई है, जिसका बचपन उन खेल-खिलौनो और टॉफी-चॉकलेट से वंचित रहता है, जो संपन्न घरों के बच्चों को आसानी से उपलब्ध है, कविता में मां बच्चे को जो लोरी सुना रही है, उसके अर्थ उन लोरियों से बहुत अलग हैं, जो सुनकर बच्चे बड़े होते हैं. समाज के दूसरे हिस्से को ध्यान में रखकर कवि ने बहुत ही सहज ढंग से लेकिन करारा व्यंग्य किया गया है.

कविता : मजदूरन की लोरी
सो जाओ लल्ला सो जाओ
निंदिया के घर हो आओ

सुबह तुम्हें जल्दी उठना है
बनकर सूरज भी उगना है
जाना है खेतों में तुमको
गिरना उठना फिर चलना है
मोहनत का फल मीठा खाओ
सो जाओ लल्ला सो जाओ

नींद के घर में परी नहीं कोई
चांद-चांदनी धरी नहीं कोई
ये सब कहने की बातें हैं
बिन मेहनत के तरी नहीं कोई
बिना किए ना कुछ भी पाओ
सो जाओ लल्ला सो जाओ

तुम तो मजदूर के बेटे हो
सारे संसार को खेते हो
बदली अक्सर दुनिया तुमने
जब भी थोड़ा तुम चेते हो
सिर अपना तुम कभी न नाओ
सो जाओ लल्ला सो जाओ.

अपने काव्य लेखन के बारे में आलोक लिखते हैं, “कविताएं लिखना मैंने कब शुरू किया, मुझे ठीक से याद नहीं. पर इतना याद है कि पिछले चार-पांच वर्षों से ही इस पर गंभीर हुआ हूं. कविताओं में भी बाल कविताओं की ओर दिलचस्पी होने का कारण संभवत: मेरी जिंदगी में बच्चों की भरपूर उपस्थिति का होना है. एक तो संयुक्त परिवार और ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े होने से बहुत सारे बच्चों से रोज सहज अंतर्क्रिया होती रही तो दूसरी ओर अब शिक्षक होने के कारण मेरी कक्षाओं में बच्चों की एक भरी-पुरी दुनिया होती है जिसमें मैं भागीदार होता हूं. यह परिस्थितियां बाल मन की भावनाओं, जिज्ञासाओं और सपनों को समझने और उन्हें जीने का अवसर देती हैं. बाल कविताएं दिखने और पढ़ने में सहज-सरल लगती हैं. पर इस सहजता और सरलता को साधना आसान काम नहीं होता. इसके लिए अपने भीतर के बचपन और भोलेपन को दुबारा टटोलना होता है. छोटे-छोटे बच्चों की मन:स्थिति, हरकतों, खेल-खिलौनों, सवाल पूछने, हर चीज को जानने-समझने के लिए जुटे रहने की उनकी प्रवृत्तियों का अवलोकन और उसमें भागीदारी की भी जरूरत होती है. मैं यह दावा तो नहीं करता कि मैं इसमें सफल रहा या ये कविताएं बच्चों को पसंद ही आएंगी या फिर उनके मनोभावों को पकड़ने में पूरी तरह खरी ही उतरेंगी, पर मैं इतना जरूर कहूंगा कि मैंने इन्हें लिखते हुये बचपन को दुबारा जिया है.”

साथ ही आलोक यह भी कहते हैं, “इन कविताओं के प्रेरणास्रोत वे बच्चे ही रहे हैं जो मेरे आसपास की दुनिया को गुंजायमान किये रहते हैं. तीन छोटे बच्चों का पिता होने के कारण घर पर, तो एक शिक्षक होने के कारण स्कूल में मेरी दुनिया इन नन्हें फरिश्तों से गुलजार रहती है. उनकी मासूमियत और निश्छलता मन को मोहती है और मन में संवेदनाओं व भावनाओं का ऐसा ज्वार पैदा करती है, जो कविता के रूप में छलक पड़ती है. कविता लिखना मेरे लिए जीवन जीने का अभिन्न हिस्सा रहा है और इसीलिए कह सकता हूं कि बच्चों के लिए कविता लिखना सर्वथा अनोखा, जटिल लेकिन खुशनुमा अनुभव होता है.”

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Poem

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